
भारतीय राजनितिक पार्टियों और राज नेताओं का सेकुलरिज्म तो आप सबने देखा होगा. लेकिन क्या होगा अगर देश की न्यायपालिका भी संविधान से हटकर सेकुलरिज्म के आधार पर अपना फैसला देना शुरू कर दें?
अभी कुछ दिन पहले बीजेपी की कर्णाटक सरकार ने टीपू सुलतान की जयंती मनाने का फैसला रद्द किया था. इस फैसले को लेकर कुछ बुद्धिजीवी लोग कर्नाटक की हाईकोर्ट में गए. इस पर कर्णाटक की हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया है की कर्णाटक की सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए.
आपको बता दें की टीपू सुलतान 18 वीं शताब्दी का कर्णाटक का सुलतान था और उसकी मृत्यु से लेकर 2015 तक टीपू सुलतान की कभी किसी राजनैतिक दल ने उसकी जयंती नहीं मनाई. लेकिन 2015 में कांग्रेस की सरकार ने मुस्लिम वोटर्स को खुश करने के लिए टीपू सुलतान की जयंती मनाने का बिल पास कर दिया.
कांग्रेस ने तर्क दिया दिया की टीपू सुलतान देश की आज़ादी के लिए लड़ते हुए शहीद हुए इसलिए उसकी जयंती मनाई जा रही है. लेकिन हक़ीक़त यह थी की टीपू सुलतान ने अपने राज़ के दौरान कर्णाटक में फ़ारसी भाषा अनिवार्य कर दी थी और बहुत तेज़ी से हिन्दुवों का धर्मांतरण करवाया था, जो भी धर्म बदलने से मना करता उसे मौत के घाट उतार दिया जाता.
अंग्रेज़ों ने जब अपना साम्राज्य बड़ा करने के लिए कर्णाटक की धरती पर फौज भेजी तब उसने अपने राज्य को बचाने के लिए युद्ध के मैदान में मौत को गले लगाया था, न की देश को आज़ाद करवाने के लिए अंग्रेज़ो से युद्ध किया था.
न्यायपालिका भी सेकुलरिज्म के आधार पर फैसले देती है, इसका एक और उदाहरण बंगाल में भी देखने को मिला. कोर्ट ने सरकार से अपील की है की मुस्लिमों द्वारा हिंदुवो पर किए गए अत्याचारों को इतिहास की किताबों में न पढ़ाया जाये.
इसके इलावा देश की सबसे बड़ी अदालत में जब तीन तलाक़ पर बहस चल रही थी तब भी न्यायधीश ने कहा था की अगर आपकी कुरान में तीन तलाक़ का ज़िक्र होगा तो हम तीन तलाक़ पर अपना फैसला नहीं सुनाएंगे. ऐसे में सोचने वाली बात है की कुरान में काफिरों को मारने का ज़िक्र हुआ तो न्यायधीश क्या करेंगे?